Monday, August 1, 2016

कुछ अधूरे रिश्ते (रेलगाड़ी का सफ़र )

यात्रा जीवन की हो या किसी रेलगाड़ी की, बहुत सारे रिश्तें बंध  जाते हैं  |
रेल के डिब्बे जैसे जुड़े रहते हैं उसी सदृश सहयात्रियों से भावनात्मक रिश्ते बांध जाते हैं कभी -कभी|  
स्टेशन पर खरे खरे जब रेल गाडी में हम प्रस्थान करते हैं और सभी अजनबी एक दुसरे से बातें करने लगते हैं जैसे की पहली बार नहीं बहुत बार  वे साथ रहे हों तो लगता है जीवन कितना सुखद है |अंजानो में होने वाले वार्तालाप को कभी हम अपने बर्थ पर लेते  हुए सुना करते हैं और मंद- मंद मुस्काते रहते हैं क्योंकि थोड़े देर जीवन के दुःख दर्द भुलाकर वो हास्य परिहास करने लगते हैं |


फिर वहीँ कोई मूंगफली वाला आ जाता है | ऐसे तो मना  है रेलगाड़ी में बिना स्वीकृति के मूंगफली बेचना पर भारत के गाँव में पले लोग कब अपना स्वाभाव छोरते हैं | वो  बहुत प्यार से उस मूंगफली वाले से ५- १० रुपये का मूंगफली खरीद लेते हैं और बड़े चाव से खाते हैं जैसे वे कोई बड़े आदमी नहीं ,बस एक आम आदमी हो | पूरी भारतीय पृष्ठभूमि की झलक मिल जाती है तब |कितना अतुलनीय है हमारा देश ये रेलगाड़ी के  छोटे सफ़र में हम  जान जाते हैं | कभी -कभी मैंने देखा की अनजान लोग भी कितने आत्मीय होते हैं | वे सामने खड़े रोते हुए बच्चे को मूंगफली का दाना देकर बोलते हैं-" बेटा इसे खा लो सफ़र बहुत लम्बा है ,माँ को परेशान नहीं करो बेटा ,मैं अगले स्टेशन पर कुछ ले लूँगा खाने के लिए..."| तब मेरा ह्रदय द्रवित हो जाता है ..और सोचने लगता है की ..मेरे गलियों में भी कुछ भूखे बच्चे रहते हैं ...हम भोजन बर्बाद करने समय क्यों नहीं सोचते हैं उनके विषय में?

सफ़र आगे बढ़ता है ...कोई बूढा  आता है अगले स्टेशन पर ..ऊपर वाली बर्थ है उसकी ...और वो असमर्थ है ऊपर जाकर लेटने में....तो कोई नौजवान लड़का झट से खड़ा हो जाता है की बाबा आप नीचे  सो जाइए मैं टिकेट वाले चाचा जी से बोल दूंगा ..आप चिंता नहीं करें.....| तब लगता है मैं कितना सौभाग्यशाली हूँ की मैंने  ऐसे भारत देश में जन्म लिया है ..और कितनी ममतामयी और पावन है वे माता-पिता जो ऐसे बालक को जनम देते हैं .....|

फिर सुबह जल्दी उठकर मूंह हाथ धोकर खिड़की किनारे बैठ जाता हूँ और बाहर के रमणीय दृश्य देखने लगता हूँ | कभी पर्वत तो कभी कलकल बहती नदी को देख मन आनंदित हो जाता है | फिर कोई पास में बैठे हुए भाई या चाचा मुझे उस स्थल का विवरण देने  लगते हैं ये जानकार की ये मेरा पहला सफ़र है इस प्रदेश के ओर|  .मेरी उत्सुकता जाग जाती है ...और मुझे अपने पिता जी की याद आने लगती है जब वो हमें कहानी सुनाया करते थे और हम रात बिजली गूल होनी पर आई उमस और परेशानी को हँसी ख़ुशी से झेल लिया करते थे | पर   कुछ जगह कल कारखाने से निकलते धुंए और बहता हुआ मैला  पानी मुझे उद्दिग्न कर देते  है .....और फिर सोचता हूँ ....की मेरे बगिये  में लगे फूल न मुरझा गए हों इन पेड़ों की तरह जो कल कारखाने के लगने के बाद काटे जा रहे हैं  अनवरत ...मैं छोर अकेला आया हूँ न उन पौधों को ईश के भरोसे | 

फिर कभी उदास सा मन लगने लगता है तो कई हमउम्र सहयात्री आ जाते  है और फिर अपने विधालय की बात होने लगती है लगता ही नहीं की वो मेरे  साथी नहीं हो ...और जब  भावनाओ में डूबने लगता हूँ और आखिरी स्टेशन के आने की अधीरता को भूल थोडा और वक़्त बिताना चाहता हूँ उन सहयात्रियों के साथ ..जो कुछ समय में ही अपने से लगने लगते हैं ...तभी मन को अवांछित सी उद्घोषणा होती है की दादर स्टेशन आने वाली है ...और कुछ दर्द और कुछ प्रसन्नता के मिश्रित भावों के सहित रेलगाड़ी का सफ़र समाप्त हो जाता है....पीछे छूट जाते हैं बस ....कुछ अधूरे रिश्ते...और कुछ लम्हे ...सब फिर उम्मीदों की नज़रों से एक दुसरे को भावमयी विदाई देकर ज़िन्दगी के सफ़र पर निकल जाते हैं ........सच में रेलगाड़ी का सफ़र एक अनूठा रिश्ता बना देता है अंजानो में .....|

मेरी जुस्तजू पर और सितम नहीं करिए अब

मेरी जुस्तजू पर और सितम नहीं करिए अब बहुत चला सफ़र में,ज़रा आप भी चलिए अब  आसमानी उजाले में खो कर रूह से दूर न हो चलिए ,दिल के गलियारे में ...