Tuesday, May 31, 2011

वो पुराना रक्त वर्ण अश्व !



दूध  के  आखिरी  कटोरे  को 
अपने  सीने  में  छुपा  
वो  पुराना रक्त वर्ण  अश्व
 उस  बंजारे  को  ले  चला  है सुदूर ,

जहाँ   पिली  हुई   गेहूं   की  बालियों   के सदृश्य 
अश्व  ने  भी  अपना  रंग  चमकता  पिला  कर  लिया  है, 

बंजारे  का  वो  दूध   का   कटोरा   उसे   
याद  दिलाता   है  अपने  अकेलेपन  में  बतियाते 
कुछ  लिखते   गाते   अपने  चाँद  जैसे  दूध  के  टुकरे 
के  साथ  ...

पसीने  की  बूँदें  हैं  अब  उसकी  शिकन  पर 
और   थोडा   सुस्ता   लेता   है  वो  उतरकर 
आ  जाती  हैं  पत्ते  बन  कर  हवाए  उसे 
पंखा झूलने   ,

पर  अभी  बहुत  दूर  जाना  है  बंजारा  फिर  से 
सफ़र  पर  चलता  है  ....
उस विषम गुहा  में  प्रवेश करते ही  उस अनवरत दौड़ते अश्व में  रक्तवर्ण  का पुनः प्रवेश हो चूका है
और पतंग उड़ रहे हैं आकाश में ....,.
....,.

अपने पीछे छुपायें हुए बहुत सारे उजले बताशे 
और हलकी सी रौशनी के साथ एक चाँद का टुकरा ...
बंजारा ख़ुशी  से अपने वीराने जंगल के लिए अश्व से कूद पड़ा 
और 
उसके इस लम्बे सफ़र की दुहाई देते हुए सारे पतंग कट गए ...और बताशे 
गोरे- गोरे और सब के बीच दूध का कटोरा पूर्ण और सम्पूर्ण ,

आज बंजारा मन भर कर अपने मन को तृप्त करेगा ...........


इसी बीच रक्तवर्ण  अश्व  दूर उस नदी किनारे पेड़ के निचे  काले कम्बल की आकाश ओढ़ कर सुस्ता रहा है .....कल फिर कोई बंजारा जाएगा अपने गंतव्य पर....  

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